Wednesday 8 June 2016

उपन्यास :--गुफा वाला ख़ज़ाना (अंक:-4)

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मानसी पर्वत की, चढ़ाई पुरी कर लेने पर ,उत्साहित चिली , अब जल्दी से जल्दी नक्शे के मुताबिक़ अपने अगले लक्ष्य की तरफ़ आगे बढ़ चली।
उसका अगला लक्ष्य था  "शीतलापुर" गाँव।

"मुझे पूर्ण विश्वास हैं कि मैं दोपहर तक शीतलापुर पहुँच जाऊँगी " चिली ने अपने आपको संतुष्ट करते हुए कहा।

हालाँकि अब उसकी गति पहले जितनी तेज नहीं रही। कारण, कि वो पुरी रात से चल रही थी ।और उसके दोनों घुटनों में अब तक  सूजन भी आ चुकी थी।
इधर अब भूख ने भी मानो उस पर आक्रमण कर दिया हो।चिली ने कल रात से ही अब तक कुछ नहीं खाया था। लिहाजा यह स्वाभाविक ही था, कि अब उसको बहुत तेज से भूख लगी हैं।

"यहाँ तो दूर -दूर तक कोई गाँव भी नज़र नहींआ रहा हैं।और ये भूख है कि जान लेकर ही छोड़ेगी"  चिली ने थक हार कर  एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए कहा।

"लगता है कि अब घुटनों की सूजन और भी बढ़ गई है।यदि यथाशीघ्र मैंने इनका उपचार नहीं किया तो आगे बढ़ना  कठिन हो जायेगा"

चुकि: चिली एक ग्रामीण पहाड़ी परिवेश में पली बढ़ी लड़की थी, अत: उसे हल्का - फुल्का देशी औषधियों का ज्ञान था।
अत: वो एक बार पुन: हिम्मत करके उठी और उन मानसी पर्वत की कन्दराओं में अपनी चोट की उपचारात्मक औषधियाँ ढूँढ़ने के काम में लग गई। और संयोग से उस कुछ ही देर में ही वो मिल भी गई।

चिली ने , एक पेड़ के नीचे ,आराम से बैठकर अपने जख्मी घुटनों का प्राथमिक उपचार  करना शुरू किया।

सबसे पहले उसने , अपने घुटनों से स्त्रावित रक्त को साफ़ किया। फिर उसने उन घावों पर  जड़ी - बूटियों से निकलने वाला रस लगाया, 
तदुपरांत  उसने , अपने पहने हुए कपड़ों में से , थोड़ा पट्टीनुमा कपड़ा फाड़कर ,अपने घावों पर मरहमपट्टी की।तथा थोड़ी देर आराम करने के लिए सो गई।

कुछ समय पश्चात् जब उसकी नींद उड़ी, तो उसने महसूस किया की अब उसकें घुटनों में दर्द कुछ कम हो गया था।
"चलो अब कम से कम मैं थोड़ा चल तो सकती ही हूँ" चिली ने आश्वस्त भाव से सोचा, और निकल पड़ी पुन:अपने अभियान पर।

इधर भूख अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। और चिली का अब बिना पेट में कुछ डाले आगे बढ़ना कठिन हो रहा  था।  उसे इस वक्त अपनी माँ के हाथों से बनी उन लजीज  सेवईयों को याद हो आई , जो उसकी माँ विशेष रूप से उसके लिए बनाया करती थी।

"नहीं मुझे इस तरह  हिम्मत नहीं हारनी चाहिए , मैं एक बहादुर लड़की हूँ, और माँ कहती हैं कि बहादुर लोग कभी हार नहीं मानते हैं "

चिली ने एक बार फिर से नक्शे को सरसरी निगाहों से देखा।

भूख से बेहाल चिली उठी , तथा  अपने लिए भोजन की  तलाश करते हुए पुन: आगे चल पड़ी।

सहसा उसे कुछ दूर चलने पर एक विशाल छायादार वृक्ष दिखाई दिया।भूख से व्याकुल चिली के कदम तेजी से उस वृक्ष की  तरफ़ बढ़ने लगे ।

यह एक इमली का पेड़ था। जिस पर अनगिनत अधपकी इमलियाँ लगी थी।

"अरे वाह !  इमली का पेड़ " इमली का नाम आते ही , चिली के प्यास से व्याकुल सूखे होंठों पर अनायास ही पानी आ गया। या यूँ कहे की मानो उसकी जान में जान आ गई।

चिली को इमलियाँ बहुत पसंद थी।और वैसे भी बात जब भूख से मरने की नौबत पर आ जाए तो पसंद नापसंद का कोई महत्व नहीं रहता हैं।

क्योंकि इस समय उसका असली दुश्मन उसका पेट ही था।

चिली को इस इमली के पेड़ ने एक नई शक्ति प्रदान कर दी।वह जल्दी से पेड़ पर चढ़ी , तथा अपने लिए कुछ इमलियाँ तोड़ लाई।

चिली बड़े मज़े से इमलियाँ खाते हुए आगे  चल पड़ी।पर भला  इमलियों से कहीं  पेट की आग शांत होती हैं ।

लिहाजा चिली को अब और  भी ज्यादा भूख सताने लगी थी।

ओफ्हो ! तंग आ चुकी मैं इस भूख से, अब मुझे खाने के लिए कुछ न कुछ जुगाड़ अवश्य ही करना पड़ेगा।

चलते-चलते उसे एक पेड़ पर कुछ छत्तेनुमा सी आकृति लटकती दिखाई दी।
यह  एक कुकरमुत्ते का छत्ता था।
बड़ी मुश्किल से चिली उस छत्ते को तोड़ पाने में सफल हुई।

उसने एक पेड़ के नीचे आराम से बैठकर बड़े मज़े से उस कुकरमुत्ते के छत्ते को खाया।

"आह ! मज़ा आ गया " चलो अब कम से कम भूख की समस्या से तो निजात मिला  " अब तो बस कही थोड़ा पानी मिल जाए"

अब वो एक बार फिर अपने अभियान पर निकल पड़ी।
अब तक सुबह के ग्यारह बज चुके थे। दोपहर तक चिली को शीतलापुर पहुँचना हैं।मगर उसे अभी तक दूर -  दूर  कही पर भी किसी भी गाँव का नामोनिशान नज़र नहीं आ रहा था।

चिली को चलते हुए , लगभग घंटा भर होने को आया , मगर उसे अभी तक पानी नसीब नही हुआ।

"हे भगवान ! अब तू ही रक्षा कर " अब मैं बिना पानी के आगे नहीं बढ़ सकती "
चिली का प्यास के मारे बुरा हाल हो रहा था। आसमान से सूरज मानों अंगारे बरसा रहा हो , ऐसा चिली को प्रतीत हो रहा था।
सहसा चलते- चलते वो ठिठक गई।

"अरे ! यह कैसी आवाज़ आ रही हैं ? मुझे चलकर देखना चाहिए"।
चिली ने अपने कदम उस आवाज़ की दिशा में बढ़ा लिए।
ज्यों - ज्यों वो आवाज़ के नज़दीक जा रही थी, उसे वो आवाज़ और साफ़ सुनाई देने लगी।

"यह तो  कुछ , कल- कल से बहते हुए पानी की आवाज़  लग रही हैं"
पानी की कल्पना मात्र से ही उसका उत्साह दुगना हो गया।
चिली अब तक उस आवाज़ के पास आ चुकी थी। यह आवाज़ एक ताज़ा  बहत हुए पानी की ही थी जो एक झरने से गिर रहा था।

" वाह ! कितना सुंदर नजारा हैं ,इस झरने का । आह ! मज़ा आ गया अब में खूब मज़े से पानी भी पी सकती हूँ और नहा भी सकती   हूँ"
चिली की प्यासी गर्दन पानी पीने के लिए आतुर हो उठी।चिली ने अविलंब, बड़े ही सुकून से पानी पिया। कुछ देर स्वयं को तरोताजा करने के लिए वो नहाने में ही मग्न रही।
जब चिली नहा कर बाहर निकली तो उसे कुछ ताजगी सी महसूस हो रही थी। तेज धूप होने से उसने पास ही एक छायादार पेड़ के नीचे  अपने आप को नींद के हवाले कर दिया।

नींद में चिली तरह -तरह की कल्पनाएँ करने लगी।उसे लगा जैसे पुरा ख़ज़ाना उसके सामने हैं।एक खूबसूरत कमरा जो पूरा  हीरे-जवाहरात से भरा हुआ हैं।ढेर सारे वस्त्राभूषण , साने चांदी के बर्तन और ढेर सारी  प्राचीन काल की  स्वर्ण मुद्राएँ उसके सामने हैं। चिली नींद में पूरे खजाने का आनंद ले रही हैं।

उसने  खजाने को , अपने झोलों में भरा तथा उसे लेकर वापस आने लगी मगर वो ख़ज़ाना इतना भारी हैं , कि उससे उठाए नहीं उठ रहा हैं। चिली जितना वो उठा सकती थी। उतना ख़ज़ाना उठाकर  अपनी वापसी की  यात्रा पर निकल पड़ी ।रास्ते में उसने एक भयानक आवाज़ सुनी , यह भयानक आवाज़ चिली को ऐसी सुनाई दे रही थी।मानों कोई भयानक दर्द से करहा रहा हो।

सहसा चिली की नींद उड़ गई।उसने अपने आप को पसीने से तरबतर पाया।डर के मारे उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया।उसके होंठ सूख गये।उसे ऐसा महसूस हो रहा था , मानो उसका पूरा बदन ठंड लगकर आने वाली  बुखार की तरह कंपकंपा रहा था।

" बाप रे ! इतना भयानक सपना। कहीं ये यथार्थ में तो नहीं बदल जाएगा"
चिली ने उठकर एक बार पुन: झरने का पानी  पिया , हाथ-मुँह धोए, तथा तरोताजा होकर  फिर से नक्शे के मुताबिक़ शीतलापुर की यात्रा पर निकल पड़ी।

"इस वक्त कितने बज गए होंगे ? चिली ने स्वयं से प्रश्न किया ,और सोचा
      शायद दोपहर के दो से ऊपर बज चुके होंगे।
चिली लगातार चले जा रही थी। उसे दूर-दूर तक किसी भी गाँव का नामोनिशान अभी तक नहीं मिला था।

इधर थकान और पथरीले मार्ग में उसको चलने में काफ़ी तकलीफ़ भी महसूस हो रही थी, ऊपर से इतनी गर्मी।

"कहीं ऐसा तो नहीं कि, मैं किसी गलत
रास्ते पर निकल गई हूँ " ऐसा सोचकर चिली ने पुन: नक्शे को गौर से देखा।

"नहीं मुझे लगता हैं कि मैं सही दिशा में ही जा रही हूँ " 
चिली ने नक्शे को पुन: समेटा और आगे चल पड़ी।
कुछ देर चलने के बाद अब चिली ऐसी जगह आ पहुँची , जहा से आगे की तरह सिर्फ़  ढ़लान ही हैं।मतलब की वहाँ से उस पठारी मार्ग का उतार शुरू हो जाता हैं।
अचानक उसे इन पहाड़ियों की तलहटी में आबाद एक गाँव दिखाई दिया।

"आ गया शीतलापुर , आ गया शीतलापुर " अपने सफ़र में  चिली के लिए यह अब तक पहला गाँव था।और उसे पहली बार कोई  मनुष्य इस सफ़र में मिलने वाला था , जिससे चिली बात करेगी।
गाँव देखकर चिली आनंद से झूम उठी।

"ओह ! आज कितने समय बाद मैं फिर से किसी इंसान से बात कर सकूँगी" चिली ख़ुशी के मारे फूली नहीं समा रही थी। हालाँकि उसे बीती रात एक औरत ज़रूर मिली थी, पर वो मर चूकी थी।
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