Friday 7 August 2015

कश्मीर की घाटी (Kashmir ki ghati)

**कश्मीर की घाटी**
सिंहासन पर बैठ गए तुम,
भारत की पहचान नहीं।
रोती हैं कश्मीर की घाटी,
जन-गण-मन का गान नहीं।।

फूलों की घाटी में जहाँ ,
वास देवता करते थे।
विघ्न विनाशक भोले शंकर,
भक्तों के दुःख हरते थे।
जहाँ केसर की क्यारी में,
शंखनाद गुंजाता था।
जहाँ सवेरा स्वर्णिम किरणें,
लाकर अपनी बिछाता था।
मगर देश के खेवनहारों,
तुमको इसका भान नहीं।
रोती हैं कश्मीर की घाटी,
जन-गण-मन का गान नहीं।।

आज हवा में बारूदी गंध,
सबका जी घबराता हैं।
फूलों का रस पीने को ,
भँवरा तक कतराता हैं।।
राष्ट्रगान शर्मिंदा हैं,
आज लहू हैं घाटी में।
कायर बन सब मौन खड़े हैं,
वीरप्रसूता माटी में।।
पता नहीं अब क्यों स्वर्ग में,
होता अमृतपान नहीं ?
रोती हैं कश्मीर की घाटी ,
जन- गण-मन का  गान  नहीं।।

घाटी में सब आतंकवादी,
खून के प्यासे लगते हैं।
मगर हमारे नताओं को,
सभी तमाशे लगते हैं।।
इनको फिक्र लगी रहती हैं,
जेबें अपनी भरनी की।
नहीं किसी में हिम्मत दिखती,
आँसुओं को हरने की।।
क्या करेंगे इनको खुद,
संविधान का ज्ञान नहीं।
रोती हैं कश्मीर की घाटी,
जन-गण-मन का नहीं ।।

कायरता की हद में ,
धारा 370 पलती हैं।
जलती हैं घाटी की छाती,
हरपल लाश उगलती हैं।।
ए• के • 47 से जहाँ ,
अटल हिमालय डिग गया।
तिरंगे का दामन भी अब,
आँसुओं से भीग गया।।
रावी-शिमला के समझौतों का,
दिखता कोई निशान नहीं।
रोती हैं कश्मीर की घाटी ,
जन-गण-मन का गान नहीं।।

नेहरू के सपनों का भारत,
ना जाने किस और बढ़ा।
पैंसठ साल की आज़ादी में,
आतंकीयों की भेंट चढ़ा।।
ताशकन्द के समझौते का,
कोई सार नहीं निकला।
घायल मैदानों में सूरज ,
अबकी बार नहीं निकला।।
ख़ुशियों के क्या गीत सुनाऊँ ,
सजती सुर पे ताल नहीं।
रोती हैं कश्मीर की घाटी ,
जन-गण-मन का गान नहीं।।

कान खोलकर सुनलो अब मैं,
बात नहीं दोहराऊँगा।
मैं भारत के हर कोने मैं,
राष्ट्रध्वज फहराऊँगा।।
मुझको कोई फिक्र नहीं हैं,
अणु-बमों विस्फोटों की।
ना मैं लालच रखता हूँ,
चंद सिक्कों और नोटों की।।
देशद्रोह की भाषा बोलूँ,
मैं ऐसा शैतान नहीं।
रोती हैं कश्मीर की घाटी,
जन-गण-मन का गान नहीं।।

मुझको तो बस भारत माँ का,
गौरव गाना आता हैं।
और देश के गद्धारों को,
सूली चढ़ाना आता हैं।।
मैं साँसों के सरगम से बस,
वंदेमातरम् गाऊँगा।
विश्व गुरु के सब सपनों को,
सच करके दिखलाऊँगा।।
झुक जाएँ भेड़ों के आगे ,
"अनमोल" ये वतन की शान नहीं।
गाएगी कश्मीर की घाटी,
फिर से मंगलगान वहीं।।

  कवि:-अनमोल तिवारी"कान्हा"
      गाँव:-कपासन, जिला-चित्तौड़गढ़
संपर्क:-9694231040 & 8955095189
Anmoltiwarikanha

Sunday 21 June 2015

कलुषित वृक्ष


नाम:- श्रीअनमोल तिवारी"कान्हा"
पिता:-श्री भँवर लाल जी तिवारी
माता:-श्रीमती नर्बदा देवी
पता:-पुराना राशमी रोड पायक 
        मोहल्ला वार्ड न•17 कपासन
तहसील:-कपासन
जिला:-चित्तौड़गढ़
राज्य:-राजस्थान
पिन कोड:-312202
सम्पर्क सूत्र:-9694231040 &
                   8955095189
साहित्य विधा:-गीत ,गजल,कविता,
प्रकाशन:-शब्द प्रवाह , वंदेमातरम 
             एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
सम्मान:-शारदा साहित्य सम्मान,
             अनहद विशिष्ट काव्य सम्मान
           
          ****रचना*****
     (1) कलुषित वृक्ष

आज भी उठ रहा हैं 
काला धुआँ
सरहद के उस पार से
जिसकी विषैली बू
समा रही हैं सीनों में।
और करती है हरा
उस जख्म को
जो वर्षों पहले मिला था
बँटवारे के दिनों में।।
बटँवारा  जिसने 
  बहुत कुछ खोया।
और गुमशुदा घाटियों में
कलुषित बीज बोया।।
आज वो बीज
बन चुका हैं वृक्ष विशाल
जिसकी हरेक शाखाओं पर
है आतंक के काँटे।
और हो रहे हैं विकसित
बारूदी गंध युक्त पुष्प।।
   जिसकी हर टहनी पर
लटके हैं कई जहरीले साँप।
जो आतुर हैं निगलने को
मानवीय सँवेदनाएँ 
और करते है जहरीली फुकाँर।।
अजीब है खासियत 
  इस रक्त बीजी वृक्ष की
इसे चाहो जितना काटो
फिर पनप जाता हैं।
और करता है एक 
   कलुषित अट्ठाहस।।
और उजागर कर देता हैं
मानवीय दुर्बलता को।।
मगर होता है ,अंत हरेक का
यहीं है सृष्टि का नियम।
बस रण चंडी बन
   करे सार्थक प्रयत्न हम।।

Friday 19 June 2015

मेवाड़ के वीर

मेवाड़ के वीर
मेवाड़ के उन वीरों की
हस्ती अभी भी बाकी हैं।
फिर से जनमेगा प्रताप
ये उम्मीद अभी भी बाकी हैं।।
मान बढ़ाया जग में जिसने
उन वीरों की क्या बात करूँ।
क्या कुंभा क्या राणा सांगा
चेतक की मै साख भरूँ।।
भूखे प्यासे फिरे वनों में
वो वीर बड़े अभिमानी थे।
फिर से जनमेगा प्रताप
ये उम्मीद अभी भी बाकी हैं।।
जौहर की लपटों से खेली
पद्मिनी सी नार यहाँ।
आन के ख़ातिर लड़े समर में
सिसोदा सरदार जहाँ।।
क्या जयमल क्या पत्ता गौरा
बादल की जवानी हैं।
फिर से जनमेगा प्रताप
ये उम्मीद अभी भी बाकी है।।
रण ख़ातिर सिर काट दे दियो
उस वीर मही क्षत्राणी नें।
धर पुरुष को रूप समर में
रण कियो कर्मा रानी ने।।
अमर हो गये अमरसिहँ भी
इस दानी भामाशाह की माटी में।
फिर से जनमेगा प्रताप
ये उम्मीद अभी भी बाकी हैं।।
पन्ना का तो त्याग देखकर
कर्णराज भी शरमाया होगा।
मीरा की भक्ति के आगे
राधा का मन भी घबराया होगा।।
कैसे भूला सकता हूँ मैं
कुँवरी कृष्णा भी अभिमानी हैं।
फिर से जनमेगा प्रताप
ये उम्मीद अभी भी बाकी हैं।।
चित्तौड़ी बुर्जा दिवेर समर
हल्दीघाटी या देसूरी।
उदियापुर"अनमोल"रत्न
चावंड भौम या कोल्यारी।।
गोगुन्दा से मांडलगढ़ तक
लम्बी एक कहानी हैं।
फिर से जनमेगा प्रताप
ये उम्मीद अभी भी बाकी हैं।।
Anmol Tiwari at 04:17